जभ भी चलता था कही अकेले , तो लगता था की शायद मेरे साथ तुम ही तुम थी ...
जभ भी भीड़ में भटक जाता था तो शायद मंजिल पे ले आने वाली राह तुम ही तुम थी ...
जभ भी आता था कोई email तो लगता था शायद sender में तुम ही तुम थी ...
जभ भी मिलता था कोई sms तो लगता था शायद भेजने वालों में तुम ही तुम थी ...
जभ भी देखता था चाँद को तो लगता था शायद तुम भी उस चाँद को देख कर जग रही होगी ...
जभ भी देखता था किसी टूटते तारे को तो लगता था शायद उस टूटे तारे से मेरे लिए कुछ मांग रही होगी ...
जभ भी रोता था गम में तो मेरे साथ शायद उस गम को आधा बाटने वाली तुम ही तुम थी ...
जभ भी हँसता था ख़ुशी में तो मेरे साथ शायद उस ख़ुशी को दुगना करने वाली भी तुम ही तुम थी ...
रात को सोने से पहले और सुबह उठने के बाद किसी को सोचा था तो शायद वोह तुम ही तुम थी ...
ज़िन्दगी ऐसे परिघ में घूम रही है की शायद जिसका एक मात्र केंद्र बस तुम ही तुम थी ...
कभी लिखने की चाह नहीं थी लेकिन सोचने का indirect signal देने वाली शायद तुम ही तुम थी ...
बिना कहे .. अन्दर ही अन्दर बोहोत कुछ कह जाने की आदत डालने वाली भी शायद तुम ही तुम थी ...
सोच रहा था की इस "शायद" को "सच्चाय्यी" में उभरते कब देखूंगा ...
कब ज़िन्दगी में आगे बढूँगा और कब आप से मिलनेका अवसर पाउँगा ...
लेकिन ये ज़िन्दगी थोड़ी ना इतने आसानी से गुजर ने वाली थी ...
फिर से इस 9/11 ने पता नहीं कैसी क़यामत ढाई थी ...
बांधने चला था सपनो का सुंदर सा घर में ...
लेकिन मेरे घर की बिल्डिंग तो बनने से पहले ही बिखर गयी थी ... बनने से पहले ही बिखर गयी थी ...
- RupeshK
(to be continued...)
Note: This poem is fictitious. Kindly do not relate with any existing entity... Poem just compares the break down of a heart with break down of WTC building on 9/11...